देखिए बिहार में किस जाति के हैं कितने MLA, सवर्ण और यादव विधायकों की तादाद सब पर पड़ती है भारी

Edited By Nitika, Updated: 19 Nov, 2020 05:44 PM

see how many mlas of which caste were elected in bihar

बिहार की राजनीति में जाति एक अहम फैक्टर है। चुनाव में टिकट देने से लेकर मंत्री पद देने में उम्मीदवारों की जाति की बड़ी भूमिका होती है। इस बार के चुनाव में भी विकास और रोजगार के साथ जाति का गुणा गणित भी जमकर चला।

 

पटना( विकास कुमार): बिहार की राजनीति में जाति एक अहम फैक्टर है। चुनाव में टिकट देने से लेकर मंत्री पद देने में उम्मीदवारों की जाति की बड़ी भूमिका होती है। इस बार के चुनाव में भी विकास और रोजगार के साथ जाति का गुणा गणित भी जमकर चला। आइए देखते हैं कि बिहार में 243 सीट पर किस जाति के उम्मीदवारों ने कितनी संख्या में जीत हासिल की है।

इन आंकड़ों के मुताबिक 2015 के विधानसभा में 52 सवर्ण विधायक जीते थे, लेकिन 2020 में 64 सवर्ण विधायक विधायक जीत कर आए हैं। इस लिहाज से बिहार में पिछले चुनाव की तुलना में सवर्ण विधायकों की संख्या में 12 का इजाफा हुआ है। 2020 में 28 राजपूत एमएलए,21 भूमिहार एमएलए,12 ब्राह्मण एमएलए और 3 कायस्थ एमएलए चुने गए हैं।

अगर इन आंकड़ों का विश्लेषण करें तो हम इस नतीजे पर पहुंचेंगे कि 2020 में 2015 की तुलना में 8 राजपूत, 3 भूमिहार और 1 ब्राह्मण विधायक अधिक चुने गए हैं, लेकिन कायस्थ विधायकों की संख्या 2015 की तरह 2020 में भी तीन ही रही वहीं यादव जाति का बिहार की राजनीति में दबदबा रहा है। सरकार चाहे किसी की भी बने लेकिन यादव जाति के एमएलए हर चुनाव में ठीक ठाक तादाद में चुने जाते हैं।

वहीं अब बात करते हैं कुर्मी और कोईरी जाति के विधायकों की संख्या पर
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कुर्मी जाति से आते हैं, हालांकि कुर्मी जाति की आबादी बिहार में 5 फीसदी के आसपास ही है। इसलिए मुख्यमंत्री भले ही नीतीश कुमार बन जाते हों, लेकिन कुर्मी जाति के विधायकों की संख्या बहुत ज्यादा नहीं है। 2015 के विधानसभा चुनाव में कुर्मी जाति के 12 विधायक चुने गए थे, लेकिन 2020 के विधानसभा चुनाव में कुर्मी विधायकों की संख्या घट कर 9 रह गई है। वहीं कोईरी जाति के विधायकों की संख्या भी इस चुनाव में घट गई है। 2015 के चुनाव में कोईरी विधायकों की संख्या 20 थी, जो 2020 के विधानसभा चुनाव में घटकर 16 रह गई है।

दरअसल कुर्मी और कोईरी को बिहार में लव कुश का नाम दिया गया है। एक वक्त था जब लालू प्रसाद यादव के विरोध में लव कुश बिरादरी एकजुट हो गई थी, लेकिन उपेंद्र कुशवाहा ने रालोसपा पार्टी बनाकर कुश यानी कोईरी वोट बैंक को एकजुट करने की मुहिम चलाई, चूंकि उपेंद्र कुशवाहा ने नीतीश कुमार के विरोध की राजनीति की इसलिए नीतीश कुमार के पाले से धीरे धीरे कर कोईरी आधार वोट बैंक खिसकता गया, हालांकि इस राजनीति ने उपेंद्र कुशवाहा को भी कमजोर किया। वे इस बार भले ही एक भी सीट जीत नहीं पाए हो, लेकिन जेडीयू के नुकसान के साथ कोईरी विधायकों की संख्या भी इस बार घट गई है। मेवालाल चौधरी को भी कोईरी वोट बैंक साधने के लिए ही नीतीश कुमार ने मंत्री बनाया था, लेकिन धांधली के आरोप की वजह से मेवालाल को इस्तीफा देना पड़ गया। वहीं बिहार में अनुसूचित जाति और जनजाति समुदाय के विधायकों की तादाद भी अच्छी खासी है। 2020 के चुनाव में एससी और एसटी समुदाय के 40 विधायक चुन कर विधानसभा पहुंचे हैं।

वहीं अब बात करते हैं मुस्लिम विधायकों की संख्या के बारे में
बिहार में मुस्लिम समुदाय की आबादी लगभग 17 फीसदी है। इस लिहाज से चुनाव में मुस्लिम वोट बैंक को निर्णायक माना जाता है। कभी मुस्लिम समुदाय का वोटर केवल लालू प्रसाद यादव का फिक्स वोट बैंक माना जाता था, लेकिन नीतीश कुमार ने पसमांदा मुस्लिम समुदाय का भरोसा जीत लिया और उन्हें भी अच्छी खासी तादाद में मुस्लिम समुदाय का वोट मिलने लगा लेकिन अब मुस्लिम वोट बैंक में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम भी मुस्लिम वोट बैंक में डाका डाल रही है। 2020 में ओवैसी की पार्टी से 5 मुस्लिम विधायक चुने गए हैं लेकिन 2015 के मुकाबले मुस्लिम विधायकों की संख्या बिहार में कम ही हुई है। 2015 में 24 मुस्लिम विधायक चुने गए थे, लेकिन 2020 के चुनाव में केवल 19 मुस्लिम विधायक ही विधानसभा पहुंच पाए हैं। वहीं वैश्य जाति जिसके अंदर पचपनिया समुदाय की भी गिनती है। उनके विधायकों की तादाद में इजाफा ही हुआ है।

साफ है कि बिहार की राजनीति में जाति का महत्व इतना ज्यादा है कि ये जाने का नाम ही नहीं लेती है। उम्मीद है कि बदलते वक्त के साथ लोग विकास, रोजगार, गरीबी, पलायन और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे पर वोट देंगे। अगर जाति और धर्म के नाम पर ही विधायक चुने जाएंगे तो जातिवाद की राजनीति से मुक्ति नहीं मिल पाएगी।
 

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