यूं हीं नहीं बन जाता कोई रघुवंश प्रसाद सिंह- प्रोफेसर से केंद्रीय मंत्री बनने तक का सफर

Edited By Nitika, Updated: 13 Sep, 2020 05:13 PM

a journey of raghuvansh babu

डॉक्टर रघुवंश प्रसाद सिंह अब हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनके विचार-आदर्श और लक्ष्य बिहार के लोगों और नेताओं की कई पीढीयों के लिए प्रेरणा के श्रोत बने रहेंगे।

 

नई दिल्ली/पटनाः डॉक्टर रघुवंश प्रसाद सिंह अब हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनके विचार-आदर्श और लक्ष्य बिहार के लोगों और नेताओं की कई पीढीयों के लिए प्रेरणा के श्रोत बने रहेंगे।

पांच दशक से ज्यादा के लंबे राजनीतिक यात्रा में वे बिल्कुल बेदाग रहे। राजनीति की कोयले की कालिख के बीच वे हीरे की तरह चमकते रहे। खरी वाणी , प्रखर नेतृत्व और बेदाग छवि की वजह से करीबी लोग उन्हें ब्रह्म बाबा कह कर संबोधित करते थे। बिहार की राजनीति के इस ध्रुव तारे का जन्म 6 जून 1946 को वैशाली के शाहपुर गांव में हुआ था। भले ही उनकी दिनचर्या में भदेसपन रहा हो लेकिन उनका पसंदीदा विषय गणित था। घुवंश बाबू ने गणित से एमएससी और पीएचडी किया था। वैसे भी रघुवंश बाबू ने समाजवादी आंदोलन की सजा पाई और सरकारी कॉलेज में प्रोफेसर के पद से बर्खास्त कर दिए गए।

आपातकाल का दमन चक्र 1977 में टूट गया और चुनाव में इंदिरा गांधी की बुरी तरह हार हुई। जनता का गुस्सा ऐसा था कि इंदिरा और संजय की चुनावी हार तक हो गई। वहीं बिहार की 54 में से 53 सीट जनता पार्टी के घटक भारतीय लोकदल के खाते में आ गई। रघुवंश प्रसाद 1977 में पहली बार बेलसंड से विधायक बने थे। इस जीत का सिलसिला 1985 तक चलता रहा लेकिन 1988 में कर्पूरी ठाकुर का अचानक निधन हो गया। सूबे में जगन्नाथ मिश्र की सरकार बन गई थी। लालू प्रसाद यादव कर्पूरी ठाकुर की जगह लेने की कोशिश कर रहे थे और रघुवंश प्रसाद सिंह ने लालू प्रसाद यादव का पूरा साथ दिया। यहां से लालू और रघुनंश के बीच दोस्ती की कहानी शुरू हो गई। 1990 में बिहार विधानसभा के लिए हुए चुनाव में रघुवंश प्रसाद सिंह को कांग्रेस के दिग्विजय प्रताप सिंह ने हरा दिया था। हार का अंतर महज 24 सौ वोटों का था। रघुवंश ने इस हार के लिए जनता दल के भीतर के ही कई नेताओं को जिम्मेदार ठहराया। रघुवंश चुनाव हार गए थे लेकिन सूबे में जनता दल चुनाव जीतने में कामयाब रहा और लालू प्रसाद यादव की मुख्यमंत्री के पद पर ताजपोशी हो गई थी। लालू को 1988 में रघुवंश प्रसाद सिंह द्वारा दी गई मदद याद थी. लिहाजा उन्हें विधान परिषद भेज दिया गया। 1995 में लालू मंत्रिमंडल में रघुवंश बाबू को मंत्री भी बना दिया गया।

1996 के लोकसभा चुनाव में रघुवंश प्रसाद सिंह ने वैशाली सीट से लोकसभा का चुनाव लड़ा था। उस दौर में नीतीश कुमार की पार्टी का नाम समता पार्टी हुआ करता था। इसी समता पार्टी के वृषिन पटेल ने रघुवंश प्रसाद सिंह को टक्कर दिया था लेकिन रघुवंश बाबू ने ठीक ठाक मार्जिन से लोकसभा का चुनाव जीत लिया था। इसके बाद रघुवंश प्रसाद सिंह केंद्र में देवेगौड़ा की सरकार में राज्य मंत्री बनाए गए। पशु पालन और डेयरी महकमे का स्वतंत्र प्रभार रघुवंश बाबू के जिम्मे आया था। अप्रैल 1997 में देवेगौड़ा के जाने के बाद इंद्र कुमार गुजराल नए प्रधानमंत्री बने और रघुवंश प्रसाद सिंह को खाद्य और उपभोक्ता मंत्रालय में भेज दिया गया।

रघुवंश प्रसाद सिंह केंद्र की राजनीति में मजबूती से दस्तक दे चुके थे लेकिन उन्हें असली पहचान 1999 से 2004 के बीच मिली। 1999 के लोकसभा चुनाव में मधेपुरा से लालू प्रसाद यादव को हार का सामना करना पड़ा था। जब लालू प्रसाद हार गए तब रघुवंश प्रसाद को राष्ट्रीय जनता दल के संसदीय दल का अध्यक्ष बनाया गया। केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी। रघुवंश प्रसाद सिंह विपक्ष की बेंच पर बैठे थे। तब अरुण जेटली ने उन्हें एक हिंदी अखबार का कतरन दिखाते हुए ये पूछा था कि रघुवंश बाबू ‘तो कैसा चल रहा है वन मैन ऑपोजिशन? दरअसल 1999 से 2004 के संसदीय काल में रघुवंश प्रसाद सबसे सक्रिय सदस्यों में से एक थे। उन्होंने एक दिन में कम से कम 4 और अधिकतम 9 मुद्दों पर अपनी पार्टी की राय रखी थी। यह एक किस्म का रिकॉर्ड था। संसद में अपनी ठेठ देहाती शैली के भाषणों ने उन्हें अलग ही पहचान दिलवाई थी। अफसोस की बात ये है कि ना तो अब अरूण जेटली ही इस दुनिया में हैं और ना रघुवंश बाबू। नियति के क्रूर हाथों ने उन्हें भारत की जनता से हमेशा के लिए छीन लिया है।

2004 के चुनाव के बाद मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री के सिंहासन पर आसीन हुए लेकिन सोनिया गांधी की अध्यक्षता में बनी राष्ट्रीय सलाहकार समिति की ताकत किसी से छिपी नहीं थी। इसी समिति ने अपनी पहली ही मीटिंग में रोजगार गारंटी कानून बनाने का प्रस्ताव पास किया था लेकिन श्रम मंत्रालय ने छह महीने में भी इसे कानून का रूप नहीं दिया। बाद में इसे कानून बनाने का जिम्मा सौंपा गया ग्रामीण विकास मंत्रालय को, जिसकी कमान रघुवंश प्रसाद सिंह के पास ही थी। रघुवंश प्रसाद सिंह ने इस कानून को बनवाने और पास करवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। रघुवंश बाबू को इस कानून के लिए मंत्रिमंडल में काफी संघर्ष करना पड़ा। आखिरकार एक साल के भीतर रघुवंश प्रसाद इसे अमलीजामा पहनाने में कामयाब रहे। 2 फरवरी, 2006 को देश के 200 पिछड़े जिलों में महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना लागू की गई। 2008 तक यह भारत के सभी जिलों में लागू की जा चुकी थी। 2009 के चुनाव में कांग्रेस अपनी सत्ता बचाने में कामयाब रही और सीटें भी ज्यादा जीती। इसकी एक बड़ी वजह मनरेगा कानून ही था लेकिन इसका श्रेय ना तो प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह को मिला और ना ही रघुवंश प्रसाद सिंह को। संजय बारू ने अपनी किताब ‘एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ में इस श्रेय लेने की होड़ का जिक्र किया है। बारू के मुताबिक कांग्रेस आलाकमान चाहती थी कि इसका श्रेय राहुल गांधी को दिया जाए। साफ है कि मनरेगा के लिए श्रेय कम से कम अब रघुवंश बाबू को तो खुलकर देना ही चाहिए।

2009 के लोकसभा चुनाव से पहले राष्ट्रीय जनता पार्टी कांग्रेस गठबंधन से अलग हो गई। रघुवंश बाबू चाहते थे कि लालू प्रसाद यादव कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ें लेकिन आरजेडी ने ये चुनाव अकेले ही लड़ा। इस वजह से बिहार में आरजेडी की सीट 22 से घटकर 4 पर पहुंच गई। 2009 में लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद आरजेडी ने कांग्रेस को बाहर से समर्थन दिया। बताया जाता है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह चाहते थे कि रघुवंश प्रसाद सिंह ग्रामीण विकास मंत्रालय संभालें लेकिन आरजेडी ने सरकार में शामिल होने के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया। कहते हैं कि कांग्रेस आलाकमान के इशारे पर बिहार कांग्रेस के एक नेता को रघुवंश के पास भेजा गया था। रघुवंश के सामने कांग्रेस ज्वाइन करने का प्रस्ताव भी रखा गया, लेकिन रघुवंश बाबू ने लालू यादव से दोस्ती निभाते हुए प्रस्ताव को खारिज कर दिया।

2014 के लोकसभा चुनाव में रघुवंश प्रसाद सिंह वैशाली में त्रिकोणीय मुकाबले में घिर गए और रामा सिंह ने उन्हें 99 हज ,267 वोट से पराजित कर दिया। यही वजह थी कि जिंदगी के अंतिम वक्त तक वे रामा सिंह के आरजेडी में जाने का विरोध करते रहे खैर राजनीतिक जीवन में हार और जीत चलते ही रहता है। रघुवंश बाबू जैसे धुरंधर नेता के लिए चुनावी हार से ज्यादा फर्क नहीं पड़ सकता था। अपनी तीन ईच्छाओं को सीएम नीतीश कुमार से पूरा करने का आग्रह उन्होंने जीवन के अंतिम दिनों में किया था। पत्र लिखकर उन्होंने 26 जनवरी को वैशाली में गणतंत्र दिवस मनाने का आग्रह किया था तो अफगानिस्तान में पड़े भगवान बुद्ध के दानपात्र को बिहार लाने की अपील भी की थी। साथ ही मनरेगा योजना को किसान की खेती-बाड़ी और एससी-एसटी कल्याण से जोड़ने की अपील भी की थी।

उम्मीद है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार उनके तीनों सपनों को पूरा कर देंगे। अपने पीछे वे 2 बेटे और एक बेटी को छोड़ गए हैं। वे ऐसे राजनेताओं में गिने जाते हैं, जिन्होंने कभी अपने बच्चों को राजनीति में आगे नहीं बढ़ाया। रघुवंश बाबू भले हमारे बीच नहीं हैं लेकिन समाजवाद और मानवीय संवेदनशीलता, गांव-गरीब-किसान का उत्थान जैसे उनके आदर्श हमेशा प्रेरणा देते रहेंगे।

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